अभिलेख न्यायालय होना
अनुच्छेद-129 (अनुच्छेद-129) यह कहता है कि उच्चतम न्यायालय अभिलेख न्यायालय होगा और उसको अपनी अवमानना के लिए दंड देन की शक्ति सहित ऐसे न्यायालय की सभी शक्तियाँ होंगी। उच्चतम न्यायालय के सभी कार्यवाहियों एवं फैसलों को अभिलेखों के रूप में रखा जाएगा और उन्हें साक्ष्य के रूप में इस्तेमाल भी किया जा सकेगा। इन अभिलेखों पर किसी अन्य अदालत द्वारा, चल रहे किसी मामले के दौरान प्रश्न नहीं उठाया जा सकेगा और इन अभिलेखों, फैसलों और साक्ष्यों को विधिक संदर्भों की तरह स्वीकार कर निर्णय दिया जा सकेगा।
उच्चतम न्यायालय की अवमानना (अनुच्छेद-129)
उच्चतम न्यायालय को यह अधिकार है कि वह अपनी अवमानना पर अवमानना करने वाले को दंडित कर सके। वह सिविल और आपराधिक, दोनों तरह की अवमाननाओं में अवमानना करने वाले को दंडित कर सकता है। सिविल मामलों के अंदर वे मामले आते हैं जिसमें किसी फैसले, आदेश या न्यायालय की अवहेलना की जाती हो जबकि, अपराधिक मामलों के अंदर निम्नलिखित मामले आते हैं—
- ऐसा कार्य करना अथवा ऐसी सामग्री का प्रकाशन करना जिससे, न्यायालय की स्थिति में अवमूल्यन हो या न्यायालय की बदनामी हो।
- न्यायिक प्रक्रिया में बाधा पहुँचाना।
- प्रशासन को किसी भी तरीके से रोकने का कार्य करने जैसे मामले ।
अगर ये प्रकाशन निष्पक्ष एवं उचित हैं अथवा प्रशासनिक कारणों से इन पर कोई टिप्पणी की गई हो तब, इसे न्यायालय की अवमानना नहीं माना जाता।
उच्चतम न्यायालय ने 1991 में कहा कि अवमानना के लिए ड देने की शक्ति उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालय, अधीनस्थ न्यायालय और पंचायतों को भी प्राप्त है। न्यायालय की अवमानना लिए 6 वर्ष का साधारण कारावास या ₹ 2000 तक का अर्थदंड – दोनों शामिल हैं।
न्यायिक पुनर्विलोकन का अधिकार (अनुच्छेद 137)
कभी-कभी कुछ ज्ञात एवं अज्ञात परिस्थितियों के कारण उच्चतम न्यायालय अनुचित अथवा अधूरा निर्णय दे देती है। और अगर उच्चतम न्यायालय को यह पता लग जाए कि उसका दिया निर्णय अधूरा पक्षपात पूर्ण अथवा अनुचित है तो संविधान के अनुच्छेद 137 के तहत उसे अपने निर्णय के पूर्णविलोकन का अधिकार है इस पूर्ण अवलोकन के बाद उसे पूर्व में दिए गए अपने निर्णय को बदलने का भी अधिकार है यह व्यवस्था इसलिए अपनी गई है ताकि न्याय के निष्पादन में कोई भेदभाव ना हो और भूल बस भी लिए गए अनुचित अथवा अधूरे निर्णय को बाद में बदलने की व्यवस्था हो।
संविधान संरक्षक के रूप में
भारतीय संविधान द्वारा सरकार के प्रत्येक अंक को स्पष्ट रूप से परिभाषित करते हुए कहा गया है कि सरकार, संविधान में उल्लेखित प्रावधानों के अनुसार ही कार्य। संसद अथवा राज्य विधान मंडल द्वारा पारित प्रत्येक कानून को संविधान के प्रावधानों के अनुरूप होगा और यदि ऐसा नहीं होता है तो उसे पर अंकुश लगाने के लिए उत्तम न्यायालय को न्यायिक पूर्णविलोकन अथवा समीक्षा का अधिकार होगा। इस अधिकार के तहत उच्चतम न्यायालय संघ अथवा राज्य द्वारा बनाई गई विधि के संवैधानिकता की जांच कर सकता है यदि कोई कानून संविधान का उल्लंघन करता है तो उच्चतम न्यायालय उसे कानून को अवैध घोषित कर सकता है अर्थात् उच्चतम न्यायालय कार्यपालिका के किसी आदेश या विधायिका की किसी कानून की जांच कर सकता है।
संविधान की व्याख्या करने का अधिकार
उच्चतम न्यायालय निम्नलिखित स्थितियों में संविधान की व्याख्या कर सकता है-:
- संविधान से वर्णित किसी भी आसपास प्रावधान को।
- उन बातों पर जिस पर संविधान मौन हो।
- ऐसे प्रावधान जिसके एक से अधिक अर्थ निकलते हो।
अन्य शक्तियों
इसके अलावा उच्चतम न्यायालय को कुछ अन्य शक्तियों भी प्राप्त हैं जो निम्नलिखित हैं-
- अनुच्छेद 139 के तहत उच्चतम न्यायालय, अगर चाहे तो उच्च न्यायालय से लंबित पड़े मामले को अपने पास मंगा कर निपटारा कर सकती है।
- उच्चतम न्यायालय, किसी न्यायालय में चल रहे मामले को दूसरे न्यायालय में स्थानांतरित करने का आदेश दे सकती है।
- वह अधीनस्थ न्यायालय करना केवल जांच कर सकती है बल्कि उसके विनियमन के लिए नियम भी बन सकती है।
- राष्ट्रपति एवं उपराष्ट्रपति के निर्वाचन से संबंधित विवादों को सुलझाने एवं उसे पर निर्णय देने का अधिकार केवल उत्तम न्यायालय को है।
- संघ एवं लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष को राष्ट्रपति तभी बर्खास्त कर सकते हैं जब उच्चतम न्यायालय उन आरोपों की जांच कर बर्खास्त कीका परामर्श राष्ट्रपति को दें।
सामाजिक न्यायपीठ की स्थापना
सर्वोच्च न्यायालय ने सामाजिक मुद्दों से जुड़े मामलों को जल्दी-जल्दी निपटने के लिए 3 दिसंबर 2014 को मुख्य न्यायाधीश एच एल दत्तू के नेतृत्व में सामाजिक न्याय पीठ का गठन किया सामाजिक न्याय पीठ दो न्यायाधीशों के बीच से बनाई गई है। यह पीठ प्रत्येक शुक्रवार को सुनाई करती है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सामाजिक मामलों के लिए अलग पीठ का गठन करना न्यायपालिका के दायित्व से जुड़ा है क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय को मूल अधिकारों का संरक्षक माना जाता है।
चलंत न्यायालय
भारत के दुर्गम और पिछड़े इलाकों में न्याय व्यवस्था को सुगमता से पहुंचने के लिए 4 अगस्त 2007 में हरियाणा के मेवात जिले में देश के पहले चलंत न्यायालय का शुभारंभ किया गया। भारत के मुख्य न्यायाधीश के जी बालकृष्णन ने इस चलंत न्यायालय का उद्घाटन करते हुए कहा कि लोग सामान्यतः न्याय पाने के लिए न्यायालय में जाते हैं लेकिन अब न्यायालय लोगों के पास जाएगा। यह चलंत न्यायालय एक बस में शुरू किया गया जो एक स्थान से दूसरे स्थान तक पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार जाएगी और उसी तरह कार्य करेगी जैसा एक न्यायालय करता है। भारत में चलंत न्यायालय की इस व्यवस्था को भूतपूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम का मानस पुंज माना जाता है। इस व्यवस्था की होने से उन सभी लोगों को न्याय मिल सकेगा जो न्याय प्रक्रिया की जटिलता व्यय समय की कमी और अनावश्यक भय के कारण न्यायालय तक नहीं जा पाते हैं।
जनहित याचिका
भारतीय कानून में सार्वजनिक हितों की रक्षा के लिए जनहित याचिका द्वारा मुकदमा दायर करने का प्रावधान किया गया है। जनहित याचिका अन्य साधारण अदालत टी याचिकाओं से अलग है इस याचिका में यह आवश्यक नहीं है कि पीड़ित पक्ष स्वयं अदालत में जाए बल्कि, वह किसी भी नागरिक द्वारा अथवा स्वयं न्यायालय द्वारा पीड़ित के पक्ष में दायर किया जा सकता है। जनहित याचिका न्यायिक सक्रियता के समांतर एवं उतनी ही सशक्त प्रक्रिया है जिनका स्वागत और समर्थन मध्य वर्ग और खासकर के उन लोगों ने किया है जो न्यायपालिका के कार्य प्रणाली की जटिलता और लगने वाले समय से डर कर अदालत की शरण में नहीं जाते हैं।
हालांकि जनहित याचिका भारतीय संविधान या किसी कानून में परिभाषित नहीं है और यह उच्चतम न्यायालय की संवैधानिक व्यवस्था से निकली है। इसका कोई अंतरराष्ट्रीय संबंध भी नहीं है और इसे एक विशिष्ट भारतीय प्रणाली के रूप में देखा जाता है जनहित याचिका की शुरुआत कई चरणों में राजनीतिक और न्यायिक कर्म से हुई है। यह माना जाता है कि 70 के दशक से शुरू होकर 80 के दशक में इसकी अवधारणा पूरी तरह पक्की हो गई थी। एक गोपालन और मद्रास राज्यवाद में उच्चतम न्यायालय ने संविधान की धारा 21 की शताब्दी व्याख्या करते हुए फैसला भी दे दिया था की विधिसम्मत प्रक्रिया का मतलब उसे प्रक्रिया से है जो किसी विधान में लिखित है और जिसे विधायिका द्वारा पारित किया गया हो विधि सम्मत प्रक्रिया में प्राकृतिक न्याय या तर्कसंगत न्याय का महत्व नहीं होता है। आपात कल के बाद न्यायालय के रूप में गुणात्मक बदलाव आया और इसके बाद जनहित याचिका के विकास को कुछ हद तक ज्यादा सफलता मिलने लगी। मेनका गांधी और भारतीय संघवाद 1978 में न्यायालय ने एक के गोपालन कैसे के निर्णय को पलट दिया एवं जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकारों को विस्तार किया।
जनहित याचिका का प्रथम मुकदमा
जनहित याचिका का प्रथम मुकदमा 1979 में हुसैन आर खातून और बिहार राज्यवाद में कारगर और विचार अधिनियम कैदियों के मानवीय स्थितियों से संबंधित था। जनहित याचिका के अब तक के मामलों ने कारगर और बंदी, सशस्त्र सेना, बाल श्रम, बंधुआ मजदूरी, शहरी विकास,, पर्यावरण, संसाधन, ग्राहक मामले, शिक्षा, राजनीति, चुनाव, लोक नीति, जवाबदेही मानव अधिकार और स्वयं न्यायपालिका को काफी हद तक प्रभावित किया है।